स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: हर मनुष्य के अंतस् में एक दिव्य स्रोत निहित होता है- सत्य, आनन्द और सामर्थ्य का

स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन
swami avadheshanand giri Jeevan Darshan: 'जब हम मौन होकर, ध्यानपूर्वक, अपने भीतर के इस स्रोत से सम्पर्क करते हैं, तो पाते हैं कि दुःख का अंधकार धीरे-धीरे छंटने लगता है।' जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से 'जीवन दर्शन' में जानिए उस दिव्यता के बारे में, जो चेतना की सबसे गहन परतों में विद्यमान है।
मनुष्य का जीवन अनेक प्रकार की परिस्थितियों से होकर निकलता है। कभी वह अनुकूलताओं से युक्त होता है, तो कभी जीवन में प्रतिकूलताएं और कठिनाईयां ऐसे आ घेरती हैं कि मन व्याकुल हो उठता है। चिन्ता, भय और दुःख से मन आक्रांत हो जाता है और व्यक्ति को लगता है मानो उसका अस्तित्व ही इन अंधकारमय अनुभवों में डूब गया हो। परन्तु यही वह क्षण होता है, जब यदि हम भीतर झांके, तो पाएंगे कि हमारी आत्मा का आलोक कभी मंद नहीं होता। हर मनुष्य के अंतस् में एक दिव्य स्रोत निहित होता है- सत्य, आनन्द और सामर्थ्य का। यह स्रोत बाह्य संसार से निर्भर नहीं, बल्कि हमारी आत्म-चेतना से जुड़ा हुआ है। जब हम मौन होकर, ध्यानपूर्वक, अपने भीतर के इस स्रोत से सम्पर्क करते हैं, तो पाते हैं कि दुःख का अंधकार धीरे-धीरे छंटने लगता है। भय का स्थान साहस लेता है, व्याकुलता की जगह एक गहन शान्ति उतरने लगती है।
हम प्रायः सुख को बाह्य वस्तुओं, व्यक्तियों या उपलब्धियों में खोजते हैं। परन्तु यह खोज अंततः हमें थकावट और असंतोष ही देती है, क्योंकि सच्चा सुख तो हमारे भीतर ही छिपा होता है। जिस दिन हमें यह अनुभव हो जाता है कि वास्तविक प्रसन्नता हमारे अंतर्मन की अवस्था है, उसी दिन से जीवन का दृष्टिकोण बदलने लगता है।
सकारात्मक सोच, सद्विचार और आत्म-बोध ही वह मार्ग है, जो हमें हमारे वास्तविक स्वरूप तक पहुंचता है। जब हम सद्विचारों को अपने जीवन में जाग्रत करते हैं, तो हमारा दृष्टिकोण बदलता है। हम दु:ख में भी अवसर देखना सीखते हैं, और कठिनाईयों को आत्म-विकास का साधन बना लेते हैं। अतः आवश्यक है कि हम आत्म-निरीक्षण करें, मौन को साधें, और अपने भीतर छिपे उस अनन्त प्रकाश को पहचानें। वह प्रकाश, जो न कभी बुझता है, न मद्धम पड़ता है। वह दिव्यता, जो हमारी चेतना की सबसे गहन परतों में विद्यमान है, वही हमें शान्ति, सुख और स्थायी संतोष की ओर ले जाती है।
आओ ! हम सद्विचारों को अपने जीवन का आधार बनाएं और अपने भीतर के उस चिरन्तन आनन्द को अनुभव करें। यही आत्मस्वरूप की खोज है- एक यात्रा, जो बाहर से भीतर की ओर जाती है और अन्त में हमें उसी दिव्यता से मिलाती है, जिससे हम जन्म से ही जुड़े हुए हैं।