स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: जितनी प्रभावशाली हमारी कूटनीति-सैन्यशक्ति होगी, उतनी ही सुदृढ़ होगी राष्ट्र की बाह्य सीमाओं की रक्षा

Swami Avadheshanand Giri- jeevan darshan
X

स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन

Jeevan Darshan: जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से 'जीवन दर्शन' में किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा के मूल आयाम के बारे में।

swami avadheshanand giri Jeevan Darshan: वर्तमान परिस्थितियों में 'अहिंसा परमो धर्मः, धर्महिंसा तथैव च'- यह उक्ति ही भारतवर्ष के संतुलित, न्यायनिष्ठ और आत्म-सम्मानशील दृष्टिकोण का आदर्श ध्येय वाक्य बननी चाहिए। जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से 'जीवन दर्शन' में किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा के मूल आयाम के बारे में।

भारतीय वैदिक संस्कृति उतनी ही प्राचीन और सनातन है, जितनी यह धरती, आकाश, अग्नि, जल, पवन और प्रकाश स्वयं हैं। अनादिकाल से ही भारत की धार्मिक मान्यताओं और आध्यात्मिक चिन्तन-धारा ने इसे एक व्यापक एवं समन्वित सांस्कृतिक स्वरूप प्रदान किया है। यह वह देश है जहां भूमि को मातृरूपा मानकर उसका वन्दन किया जाता है। समग्र राष्ट्रभूमि के प्रति मातृत्व का भाव तथा प्रकृति के साथ तादात्म्य का आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही भारत की शक्ति, समृद्धि और सार्वकालिक सामर्थ्य का मूल है।

यद्यपि आज भारत एक पूर्णतः स्वतंत्र और सार्वभौम राष्ट्र है, तथापि कुछ विघटनकारी शक्तियां इसे जाति, वर्ण, भाषा एवं प्रान्तों में खण्डित करने का सपना देख रही हैं। स्वतंत्रता के उपरान्त हमने अनेक उतार-चढ़ावों का अनुभव किया है, बाह्य आक्रांताओं के साथ-साथ आंतरिक विघ्नों को भी सहा है। किन्तु इन समस्त संघर्षों में भी भारत की आत्मा, इसकी आध्यात्मिक संवेदनाओं और सनातन विचारधारा के कारण अविचलित रही है।

किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा के दो मूल आयाम होते हैं- बाह्य और आंतरिक। बाह्य सुरक्षा हमारी सेनाओं, सशस्त्र बलों एवं सामरिक नीतियों पर निर्भर करती है। जितनी प्रभावशाली हमारी कूटनीति एवं सैन्यशक्ति होगी, उतनी ही सुदृढ़ होगी- राष्ट्र की बाह्य सीमाओं की रक्षा। परन्तु राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा, एकता और अखण्डता के लिए एक समवेत राष्ट्रीय चेतना अनिवार्य है- और यह चेतना हमें केवल आध्यात्मिक परम्परा की गलियों से प्राप्त होती है।

वेद, जो ज्ञान और विज्ञान के अक्षय स्रोत हैं, राष्ट्र की संकल्पना, उसकी संरचना और उसके धर्म की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। 'राष्ट्र सूक्त' में राष्ट्र को देवता के रूप में निरूपित किया गया है- अर्थात् भारत केवल एक भूभाग नहीं, अपितु एक जीवन्त सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक सत्ता है, जो हमारी सामूहिक चेतना और आत्म-परक मूल्यों की अभिव्यक्ति है।

भारत का भौगोलिक स्वरूप जितना अद्वितीय और विस्मयकारी है, उतना ही उद्दात्त और जीवन्त है। इसका आध्यात्मिक चिन्तन, जिसने इसे केवल एक राष्ट्र नहीं, अपितु जीवन-मूल्यों की एक विराट परम्परा के रूप में प्रतिष्ठित किया है।

भारत का अस्तित्व किसी राजनीतिक आकांक्षा का परिणाम नहीं, अपितु परमात्मा के पारमार्थिक संकल्पों की पूर्णता हेतु हुआ है। हम वह सभ्यता हैं, जिसने 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के दिव्य भाव को आत्मसात् किया है। हम दूसरों के सम्मान, स्वाभिमान और निजता की रक्षा करना जानते हैं, परन्तु यदि कोई हमारी आत्म-गौरव की गरिमा को ठेस पहुंचाए अथवा विस्तारवादी प्रवृत्तियों के माध्यम से हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करे, तो उसे उचित दण्ड देना भी हमारा कर्तव्य बनता है।

वर्तमान परिस्थितियों में 'अहिंसा परमो धर्मः, धर्महिंसा तथैव च'- यह उक्ति ही भारतवर्ष के संतुलित, न्यायनिष्ठ और आत्म-सम्मानशील दृष्टिकोण का आदर्श ध्येय वाक्य बननी चाहिए।



WhatsApp Button व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें WhatsApp Logo

Tags

Next Story