स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: संयुक्त परिवार...भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब ही नहीं, शक्ति-सामर्थ्य का स्रोत भी

स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन
swami avadheshanand giri Jeevan Darshan: 'हमारे महान उपदेशों जैसे 'वसुधैव कुटुम्बकम' और 'सर्वे भवन्तु सुखिन:,' हमें इस सत्य से अवगत कराते हैं कि जब सभी की उन्नति की सोच होगी, तभी हमारी प्रगति संभव है।' जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से 'जीवन दर्शन' में आज जानिए कि भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार क्या मायने रखता है।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।
भारत की कौटुम्बिक आत्मीय-प्रतिबद्धता हमारी सबसे बड़ी निधि है। परिवार का स्नेह, त्याग, समर्पण और स्वजनों का अनुशासन सदा से व्यक्ति, परिवार और समाज में एकता, सामंजस्य और राष्ट्र की चौमुखी प्रगति का आधार रहा है। भारतीय संस्कृति में यह अवधारणा है कि हमारे पास जो कुछ भी है, वह माता-पिता, गुरुजनों, पूर्वजों और परंपराओं से प्राप्त है। इसके विपरीत, पश्चिमी देशों में यह सिखाया जाता है कि 'मैं स्वयं महान हूं' और वहां की संस्कृति में विश्व को एक बाजार की तरह देखा जाता है। वहीं, भारत के लिए यह विश्व एक परिवार है।
पश्चिमी देशों का विकास मुख्यतः अर्थ की अधिकता, उत्खनन, उपनिवेशवाद, भूमि, जंगल और आकाश पर एकाधिकार और सत्ता के विस्तार पर आधारित है। उनकी दृष्टि रही है कि वे अपने परिवार से दूर जाकर सम्पूर्ण संसार की भूमि को अपने अधीन करें। इसके विपरीत, हम पूरे विश्व को अपना परिवार मानते हैं। आजकल, पश्चिम में परिवार की अवधारणा टूट चुकी है और वहां एकल जीवन (न्यूक्लियर फैमिली) का प्रचलन बढ़ता जा रहा है।
हमारी भारतीय संस्कृति और परंपराओं में यह विश्वास है कि संकीर्ण मानसिकता, केवल अपनी प्रगति की चिंता और स्वार्थ हमें बहुत छोटा बना देती है। मूलत: सभी की प्रगति में ही हमारी उन्नति छिपी है। भगवान आद्य शंकराचार्य ने एकात्म दर्शन के माध्यम से पूरे विश्व का मार्गदर्शन किया। उन्होंने हमें यह सिखाया कि सभी जीवों की प्रगति में ही हमारी प्रगति निहित है। यही संदेश हमारे भारतीय जीवन के केंद्र में है- 'सर्वे भवन्तु सुखिन:,' अर्थात् सभी सुखी हों।
आज, दुर्भाग्यवश, भारत में युवा पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति और जीवनशैली का अनुसरण कर रही है। इसके परिणामस्वरूप, भारत में भी एकल परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है। जैसे ही परिवार सिमटते जाएंगे, हमारी सामर्थ्य भी घटेगी। परिवार की परिभाषा को समझते हुए, हमें यह अनुभव करना चाहिए कि सम्पूर्ण विश्व हमारा परिवार है। ब्रह्मांड या विश्व को अपनी गृहस्थी का अंग मानकर ही हम अपनी शक्ति और सामर्थ्य का सही उपयोग कर सकते हैं।
हमारे महान उपदेशों जैसे 'वसुधैव कुटुम्बकम' और 'सर्वे भवन्तु सुखिन:,' हमें इस सत्य से अवगत कराते हैं कि जब सभी की उन्नति की सोच होगी, तभी हमारी प्रगति संभव है। हम अगर केवल अपने ही उत्कर्ष की चिंता करेंगे तो हम छोटे हो जाएंगे, पर यदि हम समग्र मानवता के उत्थान के बारे में सोचेंगे, तो हम सशक्त और महान बनेंगे।
संयुक्त परिवार न केवल हमारी संस्कृति का प्रतिबिंब है, बल्कि यह शक्ति और सामर्थ्य का भी स्रोत है। इसका संरक्षण करना हम सभी का दायित्व है। हमें अपने परिवारों को बनाए रखने और उन्हें सुदृढ़ करने के लिए लगातार प्रयास करना चाहिए, ताकि हमारे समाज में सामूहिक एकता और समृद्धि बनी रहे।
संयुक्त परिवार भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। यह केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र की प्रगति के लिए भी आवश्यक है। हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहिए और परिवार की सामर्थ्य का अनुभव करना चाहिए, क्योंकि यही हमारी सच्ची शक्ति है।