प्रमोद भार्गव का लेख : कार्बन उत्सर्जन घटाना जरूरी

बदलते हालात में हमें जिंदा रहना है तो जिंदगी जीने की शैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। यदि तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो कार्बन उत्सर्जन में 43 प्रतिशत कमी लानी होगी। गोया, कार्बन उत्सर्जन की दर नहीं घटी और तापमान में 1.5 डिग्री से ऊपर चला जाता है तो अकाल, सूखा, बाढ़ और जंगल में आग की घटनाओं का सामना निरंतर करते रहना पड़ेगा। विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं, इसलिए उन्हें कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए विकसित देशों से आर्थिक मदद की जरूरत है।
धरती पर रहने वाले जीव-जगत पर करीब तीन दशक से जलवायु परिवर्तन के वर्तमान और भविष्य में होने वाले संकटों की तलवार लटकी हुई है। मनुष्य और जलवायु बदलाव के बीच की दूरी निरंतर कम हो रही है। अतएव इस संकट से निपटने के उपाय तलाशने की दृष्टि से 198 देश दुबई जलवायु सम्मेलन कॉप-28 में एकत्रित हुए। परिचर्चाओं और वाद विवाद से निकले निष्कर्ष के तहत कोयले, तेल और गैस अर्थात जीवाश्म ईंधन का उपयोग धीरे-धीरे खत्म करना है, लेकिन विकासशील देश इस बात को लेकर थोड़े असहमत रहे कि इस समझौते की जो शर्तें हैं, एक तो वे पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, दूसरे उन्हें अमीर देशों की आर्थिक मदद के बिना पूरी करना आसान नहीं होगा?
इस सम्मेलन का एक ही प्रमुख लक्ष्य था कि दुनिया उस रास्ते पर लौटे, जिससे बढ़ते वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक केंद्रित किया जा सके। 100 से ज्यादा देश 2030 तक दुनिया की नवीनीकरण योग्य ऊर्जा को बढ़ाकर तीन गुना करने पर सहमत भी हो गए। इसके अंतर्गत अक्षय ऊर्जा के प्रमुख स्रोत सूर्य, हवा और पानी से बिजली बनाने के उपाय सुझाए गए हैं। इस सिलसिले में प्रेरणा लेने के लिए ऊरुग्वे जैसे देश का उदाहरण दिया गया, जो अपनी जरूरत की 98 फीसदी ऊर्जा इन्हीं स्रोतों से प्राप्त करता है, लेकिन यह एक अपवाद हैं, हकीकत यह है कि यूक्रेन और रूस तथा इजरायल और हमास के बीच चलते भीषण युद्ध के कारण कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन का प्रयोग बढ़ा है और जिन बिजली उत्पादन के जिन कोयला संयंत्रों को बंद कर दिया गया था। उनका उपयोग फिर से शुरू हो गया है।
पर्यावरण विज्ञानियों ने बहुत पहले जान लिया था कि औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन और शहरी विकास से घटते जंगल से वायुमंडल का तपमान बढ़ रहा है, जो पृथ्वी के लिए घातक है। इस सदी के अंत तक पृथ्वी की गर्मी 2.7 प्रतिशत बढ़ जाएगी, नतीजतन पृथ्वीवासियों को भारी तबाही का सामना करना पड़ेगा। इस मानव निर्मित वैश्विक आपदा से निपटने के लिए प्रतिवर्ष एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन जिसे काॅन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी/काॅप) के नाम से भी जाना जाता है। इस बार सीओपी की 28वीं बैठक दुबई में संपन्न हुई। सम्मेलन में बहुत कुछ नया नहीं हुआ। लगभग पुरानी बातें हीं दोहराई गई। पेरिस समझौते के तहत वायुमंडल का तापमान औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के प्रयास के प्रति भागीदार देशों ने वचनबद्धता भी जताई, लेकिन वास्तव में अभी तक 56 देशों ने संयुक्त राष्ट्र के मानदंडों के अनुसार पर्यावरण सुधार की घोषणा की है। इनमें यूरोपीय संघ, अमेरिका, चीन जापान और भारत भी शामिल है, लेकिन रूस और यूक्रेन तथा इजरायल और फिलिस्तीन युद्ध के चलते नहीं लगता कि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण नवीकरणीय ऊर्जा को जो बढ़ावा दिया जा रहा है, वह स्थिर रह पाएगा।
क्योंकि जिन देशों ने वचनबद्धता निभाते हुए कोयला से ऊर्जा उत्सर्जन के जो संयंत्र बंद कर दिए थे, उन्हें रूस द्वारा गैस देना बंद कर दिए जाने के बाद फिर से चालू करने की तैयारियां हो रही हैं।2018 ऐसा वर्ष था, जब भारत और चीन में कोयले से बिजली उत्पादन में कमी दर्ज की गई थी। नतीजतन भारत पहली बार इस वर्ष के ‘जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक‘ में शीर्ष दस देशों में शामिल हुआ है। वहीं अमेरिका सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल हुआ था। स्पेन की राजधानी मैड्रिड में ‘काॅप 25‘ जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यह रिपोर्ट जारी की गई थी। रिपोर्ट के अनुसार 57 उच्च कार्बन उत्सर्जन वाले देशों में से 31 में उत्सर्जन का स्तर कम होने के रुझान इस रिपोर्ट में दर्ज थे। इन्हीं देशों से 90 प्रतिशत काॅर्बन का उत्सर्जन होता रहा है। इस सूचकांक ने तय किया था कि कोयले की खपत में कमी सहित कार्बन उत्सर्जन में वैश्विक बदलाव दिखाई देने लगे हैं। इस सूचकांक में चीन में भी मामूली सुधार हुआ था। नतीजतन वह तीसवें स्थान पर रहा था। आस्ट्रेलिया 61 और सऊदी अरब 56वें क्रम पर हैं।
अमेरिका खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में इसलिए आ गया है, क्योंकि उसने इस समझौते से बाहर आने का निर्णय ले लिया था। दुबई सम्मेलन में भी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन निजी तौर पर शामिल नहीं हुए, लेकिन उनके जलवायु प्रतिनिधि जाॅन कैरी ने मीथेन गैस का उत्सर्जन कम करने का भरोसा जताया। यही स्थिति चीन की रही। चीन और अमेरिका का इस सम्मेलन से दूर रहना इसलिए नागवार है, क्योंकि यही देश सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देश हैं। हकीकत है कि अमेरिका ने वास्तव में काॅर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के कोई प्रयास ही नहीं किए। दुनिया की लगभग 37 प्रतिशत बिजली का निर्माण थर्मल पावरों में किया जाता है। इन संयंत्रों की भट्टी में कोयला झोंका जाता है। दो युद्धों के चलते कोयले से बिजली उत्पादन पर निर्भरता बढ़ती दिखाई दे रही है।
ब्रिटेन में हुई पहली औद्योगिक क्रांति में कोयले का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1500 ई में बड़ी मात्रा में कोयले के उत्खनन की शुरूआत हुई थी। इसके बाद जिन देशों में भी कारखाने लगे, उनमें लकड़ी और कोयले का प्रयोग लंबे समय तक होता रहा। दुनिया की रेलें भी कोयले से ही लंबे समय तक चलती रही हैं। इसके बाद जब इन दुष्प्रभावों का अनुभव पर्यावरणविदों ने किया तो 14 जून 1992 में रियो डी जनेरियो में पहला अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन संपन्न हुआ। इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप जापान के क्योटो शहर में 16 फरवरी 2005 को पृथ्वी के बढ़ते तापमान के जरिए जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए क्योटो प्रोटोकाॅल अंतरराष्ट्रीय संधि अस्तित्व में आई। इस संधि में शामिल देशों ने ग्रीन हाउस गैसों को कम करने के लिए प्रतिबद्धता जताई। दुनिया के वैज्ञानियों ने एक राय होकर कहा कि मानव निर्मित गैस सीओ-2 के उत्सर्जन से धरती का तापमान बढ़ रहा है, जो जीवाश्म ईंधन का पर्याय है।
इन बदलते हालात में हमें जिंदा रहना है तो जिंदगी जीने की शैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। यदि तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो कार्बन उत्सर्जन में 43 प्रतिशत कमी लानी होगी। गोया, कार्बन उत्सर्जन की दर नहीं घटी और तापमान में 1.5 डिग्री से ऊपर चला जाता है तो असमय अकाल, सूखा, बाढ़ और जंगल में आग की घटनाओं का सामना निरंतर करते रहना पड़ेगा। चूंकि विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं, इसलिए उन्हें कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए विकसित देशों से आर्थिक मदद की जरूरत है। यदि सीओपी-28 सम्मेलन के ठीक पहले आई ‘एडाॅप्टेशन गैस रिपोर्ट-2023 अंडर फायनेंस‘ में कहा गया है कि वर्तमान में वैश्िवक स्तर पर जितनी वित्तीय मदद की जा रही है, उससे कहीं अधिक दस से 18 गुना आर्थिक मदद की जरूरत है। यह मदद नहीं मिलती है तो ज्यादातर विकासशील देश हाथ पर हाथ धरे अगले सम्मेलन तक बैठे रहेंगे।
प्रमोद भार्गव (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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